Monday 15 August 2011

हम लड़ेंगे साथी ......

    अदम गोंडवी की पंक्तियाँ हैं-‘ सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद हैं, दिल पे रखकर हाथ कहिये देश क्या आजाद है?” सरकारी प्रचारतंत्र के हिसाब से सारा हिंदुस्तान आज़ादी का जश्न मन रहा है|आज़ादी का जश्न मनाने की घोषणा करने वाली ये पंक्तियाँ आकाशवाणी से लेकर आधुनिकतम  मीडिया तक  की आज की पसंदीदा  पंक्तियाँ होती हैं| लालकिले के चोटी से देश के प्रधानमंत्री का “प्रोपोगेंडिस्ट” भाषण सुना जाएगा, जिसमे कई सफाइयां, और स्वर्णिम भविष्य की झूठी गवाहियाँ होंगी| इसी लाल किले से कुछ सालों पहले इन्ही प्रधानमंत्री जी ने ‘माओवाद” को जब देश की आंतरिक सुरक्षा का सबसे बड़ा खतरा बताया था तो उसका अघोषित मतलब निकला कि जनता के जंगल और संसाधन अब कारपोरेट की लूट का माल होंगे| यहीं पर जब हमारे प्रधानमंत्री जी देश कृषि की भलाई के नगाड़े बजा रहे होते हैं ताब हर चौथे मिनट में एक किसान इन्ही सरकारी नीतियों का शिकार होकर आत्महत्या कर रहा होता है| 47 से आज तक आज़ादी के मायने में अगर कुछ नहीं बदला है इस देश में तो वो है आम जानता को लूटते रहने की आज़ादी| 64 वर्षों की इस यात्रा में भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी  और स्वाथ्य के मामलों में हम खड़े होते हैं “सब-सहारा” देशों के साथ, और करोड़पतियों की संख्या के मामले में खड़े होते हैं अपने औपनिवेशिक स्वामियों के साथ|
        देशभक्ति के पैमाने भी पिछले 64 सालों में बहुत बेतरतीबी से बदल डाले गए हैं| पड़ोसी मुल्कों को नेस्तोनाबूत करने की वहशत, या क्रिकेट के उन्माद को नया पैमाना बना डाला गया है| शिक्षा, स्वास्थ, रोजगार, सामाजिक न्याय को केवल किताबी इबारतें बना दिया गया है, जो सरकारी सरक्युलरों की शोभा बढ़ाएँ| इन सालों में लगातार “कालाहांडी”, विदर्भ, बुंदेलखंड की मौतों के बरक्स सेंसेक्स के आंकड़ों को खड़ा किया जाता रहा है| धर्मनिरपेक्षता के सारे  सिद्धांत सिक्ख नरसंहार, अयोध्या और गुजरात की आँच में जलाए जा चुके हैं, जिसके तवे पर संसदीय राजनीति की रोटीयाँ सिकती हैं|
       हमारे सत्ताधीश क्या कभी इस बात का लालकिले की चोटी से जवाब देंगे कि  20 रुपया रोज से कम में गुजर बसर करने वाली जानता के लिए इस जश्न के क्या मायने हैं?क्या मायने हैं इरोम शर्मिला के लिए इस आज़ादी के जिसकी राष्ट्रीयता को आपके फौजी रोज ब रोज अपने जूतों तले रौंदते हैं?  कश्मीर की राष्ट्रीयता के लिए इसके क्या मायने हैं जहाँ के हर परिवार ने अपनों को आपके साम्राज्यवादी शिकंजे की ज़द में खोया है? उन आदिवासियों के लिए क्या मायने हैं जिनके गाँव और जंगल आपके कारपोरेट विकास की राह में उजाड़े जा रहे हैं? अल्पसंख्यक समुदायों के लिए क्या मायने हैं जिन्हें आपके आजाद देश में हर कदम पें देशभक्ति का सबूत देने के लिए मजबूर किया जाता है?
      जवाब तो इन बातों के भी चाहिए कि कैसे 47 से पहले अंग्रेजों की साम्राज्यवादी फौंजों को सामान के ठेके लेने वाले, तथाकथित आजाद भारत के सबसे बड़े व्यवसायी और विकास के दृष्टा बन बैठे? की कैसे जनता की मेहनत की सारी कमाई कुछ ही परिवारों की जेबों में चली गयी? कैसे आज भी करोड़ों लोगों के पास छत नहीं और देश का एक विकास पुरुष अश्लीलता के साथ सिर्फ अपने लिए 27 मंजिला महल खड़ा कर रहा है?कैसे आपकी मज़बूत अर्थव्यवस्था की विकास दर के सापेक्ष भुखमरी, कुपोषण और बेरोजगारी की दर भी आसमान छूती है?
     बहुत कुछ जानना है इस आज़ादी के बारे में, बहुत  कुछ समझना है| लेकिन इस आज़ादी की सीमाएं इतनी छोटी कर दी गयी हैं कि ऐसे सवालों का जवाब मांगना “देशद्रोह” और “राज्य के खिलाफ़ युद्ध” की श्रेणी में आता है| कोबाड गाँधी, सुधीर धवले , प्रशांत राही, सीमा आजाद, अरुंधती रॉय, विनायक सेन और ना जाने कितने लोग इन्ही सवालों के जवाब का दंड भुगत चुके हैं| इन्ही सवालों के जवाब के लिए संघर्षरत  लोगों को  प्रधानमंत्री जी पहले ही “देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा” घोषित कर चुके हैं, और आजाद भारत की फौजें अपने ही देश की सबसे दमित जनसँख्या के खिलाफ़ लड़ने जंगलों में भेजी जा चुकी हैं| कुल मिलाकर अली सरदार जाफ़री साहब की “कौन आजाद हुआ, किसके माथे से गुलामी जी शियाही छूटी” वाली पंक्तियाँ एकदम सटीक बैठती हैं|
    लेकिन हमारी आज़ादी सामने लुटती रहे ये भी बर्दाश्त करना बेमानी ही है| इसलिए एक ही रास्ता है संघर्ष का| निरंतर संघर्ष जो कारपोरेट दालों, साम्राज्यवाद के पिट्ठुओं के मुँह से हमारी आजादी छीन सके| इसीलिए “हम लड़ेंगे साथी.........

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