Friday 19 August 2011

सुनो..सुनो..सुनो..


सुनो सुनो सुनो ...... भारत के भाल ‘उत्तराखण्ड’ के अधिपति, महाविद्वान, परम भागवत, अग्रणी साहित्यकार श्री रमेश पोखरियाल उर्फ ‘निशंक” घोषणा करते हैं कि.........
 और इसके बाद घोषणाओं का सिलसिला चलता रहता है, जैसे आज ही “दुनिया के सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले” एक दैनिक ने 3600 नयी नौकरियों की घोषणा की, कुछ दिन पूर्व उसके एक प्रतिद्वंदी दैनिक ने शिक्षा विभाग में 800 प्रवक्ता से लेकर ना जाने कितनी और पदों के तीन महीने में भर लिए जाने की घोषणा की| अखबार में सरकारी सूत्रों के हवाले से इन पदों की घोषणाएँ अक्सर मध्यकालीन सल्तनतों की मुनादियाँ जैसी प्रतीत होती हैं| हमारे साहित्यकार मुख्यमंत्री के काल में भले ही राज्य के सारे विभाग आपदा से लेकर बेरोजगारी तक किसी भी समस्या से लड़ न पा रहे हों, पर अकेला सूचना एवं जनसंपर्क विभाग मुख्यमंत्री जी के चित्र से सजे विज्ञापनों द्वारा सारे विभागों की कमियों को पाट देता है|
      राज्य फिर बारिश और भूस्खलन की तबाही से जूझ रहा है, सीमान्त क्षेत्र सड़कों के टूटने से संपर्क से कट गए हैं, दूरस्थ क्षेत्रों में आपदा के कारण जनजीवन अस्तव्यस्त है, और यहाँ तक कि कुमाँउ की आर्थिक राजधानी कहे जाने वाले शहर हल्द्वानी, (जो कि अभी अभी नगर निगम ‘घोषित’ हुआ  है) में 7 दिनों से नलों में पानी नहीं आया|प्राकृतिक आपदा की दृष्टि से संवेदनशीन राज्य है हमारा उत्तराखण्ड|इसीलिए यहाँ आपदा प्रबंधन  के नाम पर पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है, NGO, ठेकेदार और भाजपा के छुटभैये अपना घर भर रहे हैं, लेकिन कोई ठोस नीति या कार्यक्रम हमारे पास नहीं है| जो कार्यक्रम बनते हैं, वो सरकारी फाइलों में टेंडरों के बोझ के नीचे दबे हुए दम तोड़ देते हैं|एक साल पहले भी बिल्कुल ऐसी ही आपद स्थिति में राज्य सरकार भाषणबाजी कर रही थी, केंद्र और राज्य के बीच आरोप प्रत्यारोप का दौर चल रहा था, और जानता सर पीट रही थी| कमोबेश अभी भी वही स्थिति है, बस इस बार अन्ना आंदोलन के दौर में भाषणबाजी के विषय बदल गए हैं|
     बेरोजगारी का आलम तो और भी भयानक है| रोज कई पदों कि रिक्ति, और आने वाली नियुक्तियों की घोषणाओं से ज्यादा हमारे राज्य में बेरोजगारों के पास दिल बहलाने का और कोई उपाय नहीं| कभी कभी सरकार की दरियादिली थोड़ा आगे बढ़ जाती है तों वो कुछ नौकरियों के 1000-1000 रूपये के आवेदन पत्र अपनी गरीब जनता के लिए निकालती है, जिनमे परीक्षा होने की कोई गारंटी नहीं होती, परीक्षा हो जाती है तों रिजल्ट नदारद होता है, और रिजल्ट तक भी बात पहुँच गयी तो नियुक्ति तों बहुत दूर की कौड़ी होती है| अब देखिये ना राज्य में शिक्षा के अधिकार कानून को लागू करने के लिए पूरे शिक्षक नहीं, लेकिन चाहे शिक्षा-मित्र आंदोलन कर के जान दे दें, या बेरोजगार बी.एड. की डिग्रियों के तले दब के मर जाएँ, पर दृढप्रतिज्ञ सरकार नियुक्तियां नहीं देगी| सरकार पहले “ग्राम विकास अधिकारी” की भरती के लिए विज्ञापन निकालेगी. फिर भूल जाएगी, और फिर दो साल बाद अचानक उन्ही पदों को “समूह ग” के महंगे आवेदन पत्रों में लपेटकर बेरोजगारों के सामने फेंक देगी|”सिडकुल” नाम का एक कारखानों का जंगल भी है यहाँ, जहाँ मजदूरों के खून की एक एक बूँद ठेकेदार निचोड़ रहे हैं| वाह रे “भारत के भाल” इस “रोजगार के अकाल” में भी तुम घोषणाओं से पल जा रहे हो, निश्चय ही महानता के सारे कीर्तिमान ध्वस्त हो जाएँगे अब|
       हमारे राज्य के सारे मुनादी छाप विज्ञापनों में 108 एम्बुलेंस सेवा का तों जिक्र होता है, पर इसकी आड़ में ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं में कटौती और खिलवाड़ का जिक्र नहीं होता|गाँव से मरीज इस सेवा में बैठकर आता है, (क्यूंकि गाँव में तो डॉक्टर है ही नहीं), और अस्पताल पहुंचकर भी या तो वो बेड पर इन्तजार करता है, या किसी महंगे नर्सिंग होम को “रेफर” कर दिए जाने की पुरानी परंपरा के शिकार होता है|स्कूल खुले हैं, मासाप हैं नहीं| क्या करें साहब सरकार के खजाने में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे “लो-प्रोफाइल” मांगो को पूरा करने के लिए फालतू पैसा कहाँ से आएगा? हाँ किसी बड़े ठेके, परियोजना की बात हो तो करो, सबका फायदा है उसमें| और हमारे जल- जंगल- जमीन इन परियोजनाओं के मालिक पूंजीपतियों और माफियाओं के ऐशगाह में बदल डाले जाएँगे|भाई इस व्यवस्था में विकास का मतलब ही यही है ना|
     एक गाना था “ सैयां भये कोतवाल, अब डर कहे का”, लेकिन हमारे उत्तराखण्ड में ठेकेदार गाते हैं “ठेकेदारों की है सरकार, अब डर काहे का’| तो साहब दस सालों में  जनता के आंदोलन से बने इस राज्य की जनता का एक भी सपना इस ठेकेदार संस्कृति के कारण पूरा नहीं हुआ है| जनता घोषणाएँ खाती है,धोखा खाती है, ठेकेदार और पूंजीपति मुनाफा खाते हैं, मंत्री अफसर राज्य को खाते हैं, और आन्दोलनकारी या तो लाठियां खाते हैं, या जेल की हवा|
     लेकिन इस राज्य का खून चूसते हमारे शाशकों को “गिर्दा” का एक गीत याद रखना चाहिए-
“हम ओड़ बारुडी ल्वार कुल्ली कबाड़ी, जे दिन य दुनी थें हिसाब ल्ह्युला
इक हाँग नी माँगूँ, इक फांग नी मांगूं, सब खसरा खतौनी किताब ल्ह्युला|”
यानी
‘ हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे
एक खेत नहीं, एक देश नहीं, हम सारी दुनियाँ मांगेंगे”
और तब न आपके घोषणाएँ, न डंडे और न जेलें इस मेहनतकश जानता को रोक सकेगी साहेबान| तों संभल जाओ.... क्यूंकि सचेत जानता जब लाठी मारती है तो कोई भी शोषक व्यवस्था टिक नहीं पाती|

Monday 15 August 2011

हम लड़ेंगे साथी ......

    अदम गोंडवी की पंक्तियाँ हैं-‘ सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद हैं, दिल पे रखकर हाथ कहिये देश क्या आजाद है?” सरकारी प्रचारतंत्र के हिसाब से सारा हिंदुस्तान आज़ादी का जश्न मन रहा है|आज़ादी का जश्न मनाने की घोषणा करने वाली ये पंक्तियाँ आकाशवाणी से लेकर आधुनिकतम  मीडिया तक  की आज की पसंदीदा  पंक्तियाँ होती हैं| लालकिले के चोटी से देश के प्रधानमंत्री का “प्रोपोगेंडिस्ट” भाषण सुना जाएगा, जिसमे कई सफाइयां, और स्वर्णिम भविष्य की झूठी गवाहियाँ होंगी| इसी लाल किले से कुछ सालों पहले इन्ही प्रधानमंत्री जी ने ‘माओवाद” को जब देश की आंतरिक सुरक्षा का सबसे बड़ा खतरा बताया था तो उसका अघोषित मतलब निकला कि जनता के जंगल और संसाधन अब कारपोरेट की लूट का माल होंगे| यहीं पर जब हमारे प्रधानमंत्री जी देश कृषि की भलाई के नगाड़े बजा रहे होते हैं ताब हर चौथे मिनट में एक किसान इन्ही सरकारी नीतियों का शिकार होकर आत्महत्या कर रहा होता है| 47 से आज तक आज़ादी के मायने में अगर कुछ नहीं बदला है इस देश में तो वो है आम जानता को लूटते रहने की आज़ादी| 64 वर्षों की इस यात्रा में भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी  और स्वाथ्य के मामलों में हम खड़े होते हैं “सब-सहारा” देशों के साथ, और करोड़पतियों की संख्या के मामले में खड़े होते हैं अपने औपनिवेशिक स्वामियों के साथ|
        देशभक्ति के पैमाने भी पिछले 64 सालों में बहुत बेतरतीबी से बदल डाले गए हैं| पड़ोसी मुल्कों को नेस्तोनाबूत करने की वहशत, या क्रिकेट के उन्माद को नया पैमाना बना डाला गया है| शिक्षा, स्वास्थ, रोजगार, सामाजिक न्याय को केवल किताबी इबारतें बना दिया गया है, जो सरकारी सरक्युलरों की शोभा बढ़ाएँ| इन सालों में लगातार “कालाहांडी”, विदर्भ, बुंदेलखंड की मौतों के बरक्स सेंसेक्स के आंकड़ों को खड़ा किया जाता रहा है| धर्मनिरपेक्षता के सारे  सिद्धांत सिक्ख नरसंहार, अयोध्या और गुजरात की आँच में जलाए जा चुके हैं, जिसके तवे पर संसदीय राजनीति की रोटीयाँ सिकती हैं|
       हमारे सत्ताधीश क्या कभी इस बात का लालकिले की चोटी से जवाब देंगे कि  20 रुपया रोज से कम में गुजर बसर करने वाली जानता के लिए इस जश्न के क्या मायने हैं?क्या मायने हैं इरोम शर्मिला के लिए इस आज़ादी के जिसकी राष्ट्रीयता को आपके फौजी रोज ब रोज अपने जूतों तले रौंदते हैं?  कश्मीर की राष्ट्रीयता के लिए इसके क्या मायने हैं जहाँ के हर परिवार ने अपनों को आपके साम्राज्यवादी शिकंजे की ज़द में खोया है? उन आदिवासियों के लिए क्या मायने हैं जिनके गाँव और जंगल आपके कारपोरेट विकास की राह में उजाड़े जा रहे हैं? अल्पसंख्यक समुदायों के लिए क्या मायने हैं जिन्हें आपके आजाद देश में हर कदम पें देशभक्ति का सबूत देने के लिए मजबूर किया जाता है?
      जवाब तो इन बातों के भी चाहिए कि कैसे 47 से पहले अंग्रेजों की साम्राज्यवादी फौंजों को सामान के ठेके लेने वाले, तथाकथित आजाद भारत के सबसे बड़े व्यवसायी और विकास के दृष्टा बन बैठे? की कैसे जनता की मेहनत की सारी कमाई कुछ ही परिवारों की जेबों में चली गयी? कैसे आज भी करोड़ों लोगों के पास छत नहीं और देश का एक विकास पुरुष अश्लीलता के साथ सिर्फ अपने लिए 27 मंजिला महल खड़ा कर रहा है?कैसे आपकी मज़बूत अर्थव्यवस्था की विकास दर के सापेक्ष भुखमरी, कुपोषण और बेरोजगारी की दर भी आसमान छूती है?
     बहुत कुछ जानना है इस आज़ादी के बारे में, बहुत  कुछ समझना है| लेकिन इस आज़ादी की सीमाएं इतनी छोटी कर दी गयी हैं कि ऐसे सवालों का जवाब मांगना “देशद्रोह” और “राज्य के खिलाफ़ युद्ध” की श्रेणी में आता है| कोबाड गाँधी, सुधीर धवले , प्रशांत राही, सीमा आजाद, अरुंधती रॉय, विनायक सेन और ना जाने कितने लोग इन्ही सवालों के जवाब का दंड भुगत चुके हैं| इन्ही सवालों के जवाब के लिए संघर्षरत  लोगों को  प्रधानमंत्री जी पहले ही “देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा” घोषित कर चुके हैं, और आजाद भारत की फौजें अपने ही देश की सबसे दमित जनसँख्या के खिलाफ़ लड़ने जंगलों में भेजी जा चुकी हैं| कुल मिलाकर अली सरदार जाफ़री साहब की “कौन आजाद हुआ, किसके माथे से गुलामी जी शियाही छूटी” वाली पंक्तियाँ एकदम सटीक बैठती हैं|
    लेकिन हमारी आज़ादी सामने लुटती रहे ये भी बर्दाश्त करना बेमानी ही है| इसलिए एक ही रास्ता है संघर्ष का| निरंतर संघर्ष जो कारपोरेट दालों, साम्राज्यवाद के पिट्ठुओं के मुँह से हमारी आजादी छीन सके| इसीलिए “हम लड़ेंगे साथी.........

Thursday 11 August 2011

एक मिनट का मौन



एक मिनट का मौन
एम्मानुएल ओर्तीज

इससे पहले कि मैं यह कविता पढ़ना शुरू करूँ
मेरी गुज़ारिश है कि हम सब एक मिनट का मौन रखें
ग्यारह सितम्बर को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन में मरे लोगों की याद में
और फिर एक मिनट का मौन उन सब के लिए जिन्हें प्रतिशोध में
सताया गया, क़ैद किया गया
जो लापता हो गए जिन्हें यातनाएं दी गईं
जिनके साथ बलात्कार हुए एक मिनट का मौन
अफ़गानिस्तान के मज़लूमों और अमरीकी मज़लूमों के लिए

और अगर आप इज़ाजत दें तो

एक पूरे दिन का मौन
हज़ारों फिलस्तीनियों के लिए जिन्हें उनके वतन पर दशकों से काबिज़
इस्त्राइली फ़ौजों ने अमरीकी सरपरस्ती में मार डाला
छह महीने का मौन उन पन्द्रह लाख इराकियों के लिए, उन इराकी बच्चों के लिए,
जिन्हें मार डाला ग्यारह साल लम्बी घेराबन्दी, भूख और अमरीकी बमबारी ने

इससे पहले कि मैं यह कविता शुरू करूँ

दो महीने का मौन दक्षिण अफ़्रीका के अश्वेतों के लिए जिन्हें नस्लवादी शासन ने
अपने ही मुल्क में अजनबी बना दिया। नौ महीने का मौन
हिरोशिमा और नागासाकी के मृतकों के लिए, जहाँ मौत बरसी
चमड़ी, ज़मीन, फ़ौलाद और कंक्रीट की हर पर्त को उधेड़ती हुई,
जहाँ बचे रह गए लोग इस तरह चलते फिरते रहे जैसे कि जिंदा हों।
एक साल का मौन विएतनाम के लाखों मुर्दों के लिए...
कि विएतनाम किसी जंग का नहीं, एक मुल्क का नाम है...
एक साल का मौन कम्बोडिया और लाओस के मृतकों के लिए जो
एक गुप्त युद्ध का शिकार थे... और ज़रा धीरे बोलिए,
हम नहीं चाहते कि उन्हें यह पता चले कि वे मर चुके हैं। दो महीने का मौन
कोलम्बिया के दीर्घकालीन मृतकों के लिए जिनके नाम
उनकी लाशों की तरह जमा होते रहे
फिर गुम हो गए और ज़बान से उतर गए।

इससे पहले कि मैं यह कविता शुरू करूँ।

एक घंटे का मौन एल सल्वादोर के लिए
एक दोपहर भर का मौन निकारागुआ के लिए
दो दिन का मौन ग्वातेमालावासिओं के लिए
जिन्हें अपनी ज़िन्दगी में चैन की एक घड़ी नसीब नहीं हुई।
45 सेकेंड का मौन आकतिआल, चिआपास में मरे 45 लोगों के लिए,
और पच्चीस साल का मौन उन करोड़ों गुलाम अफ्रीकियों के लिए
जिनकी क़ब्रें समुन्दर में हैं इतनी गहरी कि जितनी ऊंची कोई गगनचुम्बी इमारत भी न होगी।
उनकी पहचान के लिए कोई डीएनए टेस्ट नहीं होगा, दंत चिकित्सा के रिकॉर्ड नहीं खोले जाएंगे।
उन अश्वेतों के लिए जिनकी लाशें गूलर के पेड़ों से झूलती थीं
दक्षिण, उत्तर, पूर्व और पश्चिम

एक सदी का मौन

यहीं इसी अमरीका महाद्वीप के करोड़ों मूल बाशिन्दों के लिए
जिनकी ज़मीनें और ज़िन्दगियाँ उनसे छीन ली गईं
पिक्चर पोस्ट्कार्ड से मनोरम खित्तों में...
जैसे पाइन रिज वूंडेड नी, सैंड क्रीक, फ़ालन टिम्बर्स, या ट्रेल ऑफ टियर्स।
अब ये नाम हमारी चेतना के फ्रिजों पर चिपकी चुम्बकीय काव्य-पंक्तियाँ भर हैं।

तो आप को चाहिए खामोशी का एक लम्हा ?
जबकि हम बेआवाज़ हैं
हमारे मुँहों से खींच ली गई हैं ज़बानें
हमारी आखें सी दी गई हैं
खामोशी का एक लम्हा
जबकि सारे कवि दफनाए जा चुके हैं
मिट्टी हो चुके हैं सारे ढोल।

इससे पहले कि मैं यह कविता शुरू करूँ
आप चाहते हैं एक लम्हे का मौन
आपको ग़म है कि यह दुनिया अब शायद पहले जैसी नहीं रही रह जाएगी
इधर हम सब चाहते हैं कि यह पहले जैसी हर्गिज़ न रहे।
कम से कम वैसी जैसी यह अब तक चली आई है।

क्योंकि यह कविता 9/11 के बारे में नहीं है
यह 9/10 के बारे में है
यह 9/9 के बारे में है
9/8 और 9/7 के बारे में है
यह कविता 1492 के बारे में है।

यह कविता उन चीज़ों के बारे में है जो ऐसी कविता का कारण बनती हैं।
और अगर यह कविता 9/11 के बारे में है, तो फिर :
यह सितम्बर 9, 1973 के चीले देश के बारे में है,
यह सितम्बर 12, 1977 दक्षिण अफ़्रीका और स्टीवेन बीको के बारे में है,
यह 13 सितम्बर 1971 और एटिका जेल, न्यू यॉर्क में बंद हमारे भाइयों के बारे में है।

यह कविता सोमालिया, सितम्बर 14, 1992 के बारे में है।

यह कविता हर उस तारीख के बारे में है जो धुल-पुँछ रही है कर मिट जाया करती है।
यह कविता उन 110 कहानियो के बारे में है जो कभी कही नहीं गईं, 110 कहानियाँ
इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में जिनका कोई ज़िक्र नहीं पाया जाता,
जिनके लिए सीएनएन, बीबीसी, न्यू यॉर्क टाइम्स और न्यूज़वीक में कोई गुंजाइश नहीं निकलती।
यह कविता इसी कार्यक्रम में रुकावट डालने के लिए है।

आपको फिर भी अपने मृतकों की याद में एक लम्हे का मौन चाहिए ?
हम आपको दे सकते हैं जीवन भर का खालीपन :
बिना निशान की क़ब्रें
हमेशा के लिए खो चुकी भाषाएँ
जड़ों से उखड़े हुए दरख्त, जड़ों से उखड़े हुए इतिहास
अनाम बच्चों के चेहरों से झांकती मुर्दा टकटकी
इस कविता को शुरू करने से पहले हम हमेशा के लिए ख़ामोश हो सकते हैं
या इतना कि हम धूल से ढँक जाएँ
फिर भी आप चाहेंगे कि
हमारी ओर से कुछ और मौन।

अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन
तो रोक दो तेल के पम्प
बन्द कर दो इंजन और टेलिविज़न
डुबा दो समुद्री सैर वाले जहाज़
फोड़ दो अपने स्टॉक मार्केट
बुझा दो ये तमाम रंगीन बत्तियां
डिलीट कर दो सरे इंस्टेंट मैसेज
उतार दो पटरियों से अपनी रेलें और लाइट रेल ट्रांजिट।

अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन, तो टैको बैल की खिड़की पर ईंट मारो,
और वहां के मज़दूरोंका खोया हुआ वेतन वापस दो। ध्वस्त कर दो तमाम शराब की दुकानें,
सारे के सारे टाउन हाउस, व्हाइट हाउस, जेल हाउस, पेंटहाउस और प्लेबॉय।

अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन
तो रहो मौन ''सुपर बॉल'' इतवार के दिन
फ़ोर्थ ऑफ़ जुलाई के रोज़
डेटन की विराट 13-घंटे वाली सेल के दिन
या अगली दफ़े जब कमरे में हमारे हसीं लोग जमा हों
और आपका गोरा अपराधबोध आपको सताने लगे।

अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन
तो अभी है वह लम्हा
इस कविता के शुरू होने से पहले।

"नया भारत" - फहमीदा रियाज़ की कविता


(पाकिस्तानी कवियत्री फहमीदा रियाज़ की कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ, -“नया भारत”,  इस कविता पर हमारे देशभक्त के ठेकेदार संगठनो यथा, अभाविप,रा. स्व.संघ. इत्यादि को आपत्ति है| आप लोग भी बताइये इसमें आपत्तिजनक क्या है?)
-तुम बिलकुल हम जैसे निकले
अब तक कहाँ छुपे थे भाई
वो मूरखता, वो घामड़पन
जिसमे हमने सदी गँवाई
आखिर पहुंची द्वार तुम्हारे
अरे बधाई , बहुत बधाई|
प्रेत धर्म का नाच रहा है
कायम हिंदू राज करोगे?
सरे उलटे काज करोगे!
अपना चमन तराज़ करोगे!
तुम भी बैठे करोगे सोचा
पूरी है वैसी तैयारी
कौन है हिंदू कौन नहीं है
तुम भी करोगे फतवे जारी|
होगा कठिन वहाँ भी जीना
दांतों आ जाएगा पसीना
जैसी तैसी कटा करेगी
वहाँ भी सबकी सांस घुटेगी|
माथे पर सिन्दूर कि रेखा
कुछ भी नहीं पड़ोस से सीखा!
क्या हमने दुर्दशा बनाई
कुछ भी तुमको नज़र न आई?
कल दुःख से सोचा करती थी
सोच के बहुत हंसी आज आई
तुम बिलकुल हम जैसे निकले
हम दो कौम नहीं थे भाई|
मशक करो तुम आ जाएगा
उलटे पाँव चलते जाना
ध्यान न मन में दूजा आए
बस पीछे ही नज़र जमाना|
भाड़ में जाए शिक्ष्या –विक्ष्या
अब जाहिलपन के गुण गाना
आगे गड्ढा है मत देखो
लाओ वापस गया ज़माना|
एक जाप सा करते जाओ
बारम्बार यही दोहराओ
“कैसा वीर महान  था भारत”
“कैसा आलीशान था भारत”!
फिर तुम लोग पहुँच जाओगे
बस परलोक पहुँच जाओगे|
हम तो पहले ही हैं वहाँ  पर
तुम भी समय निकालते रहना
अब जिस नरक में जाओ वहाँ  से
चिट्ठी –विट्ठी डालते रहना |